Friday, January 25, 2013

विश्वास

जीवन के तमाम उतार चढ़ाव में 
अक्सर तुम्हे अपने साथ पता हूँ 
हर वो लम्हा मुझे याद है एकदम अविस्मृत 
मै व्याकुलता के पराकास्ठा पर था 
तब तुमने मझे दूर से ही
अपने सामीप्य का एहसास कराया था
तुम्हारा वही एह्साह थामे है मुझे 
और मै जूझ रहा हूँ हालात से 
मुझे यकी है तुम मुझे संभालोगी

....................आशीष शुक्ला 

Wednesday, October 3, 2012

ख्वाहिशों के समंदर


ख्वाहिशों के समंदर में डूबते उतराते
पंख होते तो हम आसमां में उड़ जाते
आसमां के आगे का जहाँ भी देख आते
पंख होते तो हम आसमां में उड़ जाते
अंतर्मन के झंझावातों से ऊपर होकर
अपनी अलग ही दुनियां में खोकर
ख्वाहिशों के समंदर में डूबते उतराते
न छल न कपट न राग न द्वेष
होता जहाँ इक सादा परिवेश
ना लूट न चोरी न हिंसा न चकारी
न होती जहाँ चंद सिक्को की खातिर मारामारी
आओ इक ऐसा जहाँ हम बनाये
इन्सां को इंसान बनना सिखाएं
ख्वाहिशों के समंदर में डूबते उतराते
पंख होते तो हम आसमां में उड़ जाते
............................आशीष शुक्ला

Thursday, July 5, 2012

अमीरजादों के रेस की शिकार होती फुटपाथियों की जिन्दगी



मनीष दुबे
बहुत ही आम हो चली है आम इंसान की जिंदगी। या यूं कहलें की अमीरों की नजर में फुटपाथ पर रहने वालों की जिंदगी सलाद के छिलके के बराबर है तो इसमें कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। कहा जाता है कि इंसान की एक ही जाति होती है इंसानियत। लेकिन आज के परिदृश्य में इंसानियत कहां खोती जा रही है यह कहना थोड़ा मुश्किल हो गया है। हालिया घटित हुए एक वाकिये से तो ऐसा ही लगता है कि अमीरों के लिए गरीबों के लिए इंसानियत खत्म हो चुकी है। हाल ही में एक अमीरजादे अभिनेता की गाड़ी का पहिया एक लाचर बूढ़ी महिला की जिंदगी पर भारी पड़ा। मीडिया ने जब अभिनेता से इस बाबत जवाब मांगा तो महाशय का जवाब था कि फुटपाथ पर सोते हुए इंसानों को सोचना चाहिए कि वह कहां सोए और उन्हें सचेत रहना चाहिए। ये असंवेदनसील जवाब कई तरह के सवाल अपने पीछे छोड़ जाता है कि गरीबों की लाचार जिंदगी जो सड़कों पर बिखरी हुई है, उन्हें सोने से पहले ढाई बजे रात को केवल इसलिए सचेत रहना चाहिए कि किसी बॉलीवुड के खान को गरीब इंसान और कूड़े के ढेर में अंतर नजर नहीं आता है। या इन महान हस्तियों को गरीबो की जिंदगी सच में कूड़े का ढेर लगने लगी है। जिसे साफ करने का जिम्मा मुन्सिपैलिटी ने खास कर खान परिवार को सौपा हुआ है। ऐसा ही एक वाकया 2002 में भी  हुआ था जब बड़े खान की गाड़ी ने फुटपाथ पर सो रहे चार इंसानों को कुचल डाला था। जिसमें एक व्यक्ति की जान भी चली गई थी। जिसे अदालत ने काफी संगीन मानते हुए 1500
रुपये का जुर्माना भी तय किया था। जो काफी हास्यासपद है। फिर केस चला और केस खत्म भी हो गया किसी को पता भी नहीं चला। लेकिन जिस घर का चिराग इस हादसे में बुझा वो फिर कभी दुबारा नहीं जला। हमारा कानून शायद ऐसे आपराध को अपराध ही नहीं मानता इसलिए ये इरादतन और गैर ईरादतन हत्याओं के मामले बढ़ते जा रहे हैं किसी के जान का हर्जाना मात्र 1500 रुपये वो भी उस स्टार के लिए जो एक फिल्म बनाने के 15 करोड़ लेता हो। इससे हमें हमारे कानून के गंभीरता का अंदाज लग सकता है। फिलहाल इस केस में भी  जिसमे एक बुजुर्ग महिला की मौत हुई है उस गाड़ी के चालक पर 304 और 279 जैसी छोटी धाराएं लगाई हैं जिसमें शायद कुछ ही दिनों में चालक को जमानत मिल जाएगी।
लेकिन यहां सवाल ये उठता हैकि आखिर कब तक ऐसी मौते होती रहेंगी। जो आए दिन तेजी से बढ़ती ही जा रही हैं और सड़क हादसों में मौतों का आकड़ा साल दर साल बढ़ता ही जा रहा है।
इस घटना के बाद एक बड़ा सवाल यह उठता है कि क्या ऐसी घटनाओं में इंसान की जिंदगी का कोई मूल्य नही है? या ऐसे मृत्यु को स्वेच्छा मृत्यु का दर्जा प्राप्त हो गया है।
जिस देश में स्वेच्छा मृत्यु को भी अपराध की श्रेणी में रखा गया है। उसी देश में एक हाईप्रोफाइल मामले में हमारे देश की कानून व्यवस्था इतनी असंवेदनशील है। यह अपने आप में एक विडंबना है। आज के दौर में जरुरत है एक नए संशोधित कानून की जो इस हादसे को गैर इरादतन जुर्म का जामा न पहनाए। बल्कि एक सख्त कानून बनाकर लोगों की जान की हिफाजत की जा सके। ताकि अमीरों के गाड़ी के पहिए किसी गरीब की जान पर भारी ना पड़े।

Saturday, April 28, 2012

रश्मिरथी (रामधारी सिंह दिनकर)

सौभाग्य न सब दिन सोता है
देखे आगे क्या होता है
मैत्री की राह दिखाने को
सब को सुमार्ग पर लाने को
दुर्योधन को समझने को
भीषण विध्वंस बचाने को
भगवान हस्तिनापुर आए
पांडव का संदेशा लाए
दो न्याय अगर तो आधा दो
पर इसमे भी यदि बाधा हो
तो दे दो केवल पांच ग्राम
रखो अपनी धरती तमाम
हम वही खुशी से खाएँगे
परिजन पे असि ना उठाएँगे
दुर्योधन वो भी दे ना सका
आशीष समाज की से न सका
उल्टे हरी को बाँधने चला
जो था असाध्य, साधने चला
जब नाश मनुज पर छाता हे
पहले विवेक मर जाता हे
हरी ने भीषण हुंकार किया
अपना स्वरूप विस्तार किया
डगमग डगमग दिग्गज डोले
भगवान कुपित होकर बोले
जंजीर बढ़ा अब साध मुङो
हा हा दुर्योधन बाँध मुङो
यह देख गगन मुझमे लय है
यह देख पवन मुझमे लय है
मुझमे विलीन झंकार सकल
मुझमे लय है संसार सकल
अमरत्व फूलता है मुझमें
संहार झूलता है मुझमे
उदयांचल मेरे दीप्त भाल
भू-मंडल वक्ष-स्थल विशाल
भुज परिधि बाँध को घेरे हैं
मैनाक मेरु पग मेरे हैं
दिखते हैं जो ग्रह नक्षत्र निखर
सब हैं मेरे मुख के अंदर
शक हो तो दृश्य अकांड देख
मुझमे सारा ब्रrांड देख
चर-अचर जीव, जग क्षर अक्षर
नश्वर मनुष्य, सूरजति अमर
सत कोटि सूर्य, सत कोटि चंद्र
सत कोटि सरित सर सिंधु मंडर
सत कोटि ब्रrा विष्णु महेश
सत कोटि जलपटि जीष्णु धनेश
सत कोटि रुद्र, सत कोटि काल
सत कोटि दंड धर लोकपाल
जंजीर बढ़ा कर साध इन्हे
हा हा दुर्योधन बाँध इन्हे
भूतल अटल पाताल देख
गत और अनागत काल देख
यह देख जगत का आदि सृजन
यह देख महाभारत का ऋण
मृतको से पति हुई भू है
पहचान कहाँ इसमे तू है?
अंबर का कुन्तल जाल देख
पद के नीचे पाताल देख
मुट्ठी में तीनो काल देख
मेरा स्वरूप विकराल देख
जिह्वा से कढ़ती ज्वाल सघन
सांसो से पाता जन्म पवन
पड़ जाती मेरी दृष्टि जिधर
हँसने लगती है सृष्टि उधर
मैं जब मूंदता हूँ लोचन
छा जाता है चारो ओर मरन
बाँधने मुङो तू आया है
जंजीर बड़ी क्या लाया है?
यदि मुङो बाँधना चाहे मन
पहले तू बाँध अनंत गगन
सुनने को साध न सकता है
वो मुङो बाँध कब सकता है?
हित वचन नही तूने माना
मैत्री का मूल्य न पहचाना
तो ले अब मैं भी जाता हूं
अंतिम संकल्प सुनाता हूं
याचना नही अब रण होगा
जीवन जय या की मरण होगा
टकराएँगे नक्षत्र निखर
बरसेगी भू पर वाहनी प्रखर
फन शेषनाग का डोलेगा
विकराल काल मुँह खोलेगा
दुर्योधन रण ऐसा होगा
फिर कभी नही जैसा होगा
भाई पर भाई टूटेंगे
विष-बाण बूँद-से छूटेंगे
सौभाग्य मनुज के फूटेंगे
वायस श्रंगाल सुख लूटेंगे
आखिर तू भूसायी होगा
हिंसा का पर्यायी होगा
थी सभा सन्न, सब लोग डरे
चुप थे या थे बेहोश पड़े
केवल दो नर न आघाते थे
धृतराष्ट्र-विदुर सुख पाते थे
कर जोड़ खड़े प्रमुदित निर्भय
दोनो पुकारते थे जय-जय।


Friday, September 23, 2011

कल्पना


एक बियाबान टापू पर मै और वो खड़े थे
सूरज क्षितिज की ओर बढ़ रहा था
हम निश्चिंत होकर एक दुसरे क पास खड़े थे
और नदी के पानी में कभी सूरज को देख रहे थे
तो कभी नदी में बने हुए अपने प्रतिबिम्बों को
नदी की लहरें हवाओं के साथ मिलकर
हवा की दिशा में ही अपना रास्ता बना रही थी
ऐसे ही उन दोनों के मिलन को देखकर
अपने आने वाले कल की हम कल्पना कर रहे थे

Monday, August 29, 2011

मै चाहू जो भी करूं मेरी मर्ज़ी


अगर हमारे देश की जनता संसद में बैठे कुछ माननीयों को उनकी असलियत से वाकिफ कराये,
तो वो संसद का मान हनन हो जाता है और अगर वो संसद में चाहे जो करे वो उनकी मर्जी है,

नेता जी उवाच :
मै चाहू जो भी करूं मेरी मर्ज़ी
मै संसद में नोट उछालूँ मेरी मर्जी
मै संसद में माइक तोडूं मेरी मर्जी
मै संसद में चप्पल फेकूं मेरी मर्जी
मै संसद में जूता फेकूं मेरी मर्जी
मै संसद में खूब गरियाऊँ मेरी मर्जी
मै संसद में खूब चिल्लाऊं मेरी मर्जी
मै संसद में कुछ भी करू मेरी मर्जी
मै संसद को हाट बनाऊं मेरी मर्जी


....आशीष शुक्ल

Tuesday, April 26, 2011

चौदहवीं के चांद से मुन्नी हुई बदनाम.....


बदलते दौर के साथ-साथ आज समाज में हर चीज़ नए रंग और नए तेवर में देखने को मिल रही है। समाज का आइना बनने की कोशिश करने वाला बॉलीवुड तो अपनी सारी हदों को तोड़कर बड़ी तेज़ी से प्रगति करता हुआ समय से भी सैकड़ों मील दूर निकल गया है। चाहे बॉलीवुड की फिल्मों की बात हो या उनके गानों की, अब तो ऐसा लग रहा है कि ये गाने हैं या फिर लोगों को उन्मत करने वाली भांग।
बात ऐसी नहीं है कि जब फिल्मों के गानों में लाइन होती थी “चौहदवीं का चांद हो…” तब फिल्में नहीं चलती थीं। फिल्में बखूबी चलती थी और सुपरहिट भी होती थीं। आज कल तो फिल्में फ्लॉप भी हो जाएं पर शीला अगर जवान हो जाए तो फिल्म पर खर्च हुआ आधा पैसा तो निकल ही आता है। 1968 में बनी फिल्म शिकार में हिरोइन गुरूदत्त से कहती है कि, “परदे में रहने दो परदा न उठाओ..” और आज के जमाने में तो मुन्नी मैडम अपने आप को ही पेश करते हुए नज़र आ रही रही हैं कि “मुन्नी बदनाम हुई डार्लिंग तेरे लिए..”। बेशर्मी की सारी हदें तो तब टूट जाती हैं जब मुन्नी “टकसाल” होती है। हाल में ही, आई हुई फिल्मों पर अगर गौर फरमाया जाए तो उसमें हीरोइन गाती है कि “अल्लाह बचाए मेरी जान कि रजिया गुंडों में फंस गई...” अब सोचने वाली बात है कि इतने कम कपड़ों में कोई भी बाहर घूमेगा या नाचेगा तो जाहिर सी बात है कि गुंडों में फंस जाएगी। इसमें नया क्या है भला? आजकल कुछ भी बोल दो और वो गाना हो जाता है। फिर संगीत का घालमेल कुछ इस तरह से किया जाता है कि वो तुरंत ही लोगों की जुबान पर चढ़ जाता है और वो भी बिना उसका अर्थ जाने उसे गाने लगते हैं। ऐसे गाने खुलेआम सुनने को मिल रहे हैं, जिसके वजह से समाज में तमाम तरह के नौतिक पतन देखने को मिल रहे है।
इसके अलावा एक और बात समझ से परे है कि सेंसर बोर्ड को क्या हो गया है और सेंसर बोर्ड इन चीज़ों को क्यों नज़रअंदाज़ कर रहा है। फिल्मों में इस्तेमाल होने वाली भाषा भी आज के समय में कितनी अभद्र और अशिष्ट हो चुकी है। फिल्में तो पहले भी बनती थी पर हीरों या विलेन कुत्ते कमीने तक ही थे पर अब तो ये स्क्रिप्ट राइटर शायद इतने आज़ाद हो गए हैं कि उन्हें लगने लगा है कि फिल्म में जब तक दो चार बीप वाले शब्द न हों, जब तक मां...बहन...की न कहें तो कुछ किया ही नहीं। नए और पुराने गानों के बीच अगर कोई सर्वेक्षण कराया जाए तो होंठ रसीले, मुन्नी हो या शीला, दिल ठरकी हो जाए की बजाए मुहम्मद रफी साहब का बहुचर्चित गाना “बहारों फूल बरसाओ” ही सर्वश्रेष्ठ रहेगा।
नैतिकता बचाने के लिए सैंसर बोर्ड अगर अब नहीं चेतेगा तो शायद आने वाले दिनों में पांच से दस साल के बच्चे भी चेयर के बजाए स्कर्ट ही खींचने लगें तो कोई आश्चर्य की बात नहीं होगी...
आशीष शुक्ला