Thursday, July 5, 2012

अमीरजादों के रेस की शिकार होती फुटपाथियों की जिन्दगी



मनीष दुबे
बहुत ही आम हो चली है आम इंसान की जिंदगी। या यूं कहलें की अमीरों की नजर में फुटपाथ पर रहने वालों की जिंदगी सलाद के छिलके के बराबर है तो इसमें कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। कहा जाता है कि इंसान की एक ही जाति होती है इंसानियत। लेकिन आज के परिदृश्य में इंसानियत कहां खोती जा रही है यह कहना थोड़ा मुश्किल हो गया है। हालिया घटित हुए एक वाकिये से तो ऐसा ही लगता है कि अमीरों के लिए गरीबों के लिए इंसानियत खत्म हो चुकी है। हाल ही में एक अमीरजादे अभिनेता की गाड़ी का पहिया एक लाचर बूढ़ी महिला की जिंदगी पर भारी पड़ा। मीडिया ने जब अभिनेता से इस बाबत जवाब मांगा तो महाशय का जवाब था कि फुटपाथ पर सोते हुए इंसानों को सोचना चाहिए कि वह कहां सोए और उन्हें सचेत रहना चाहिए। ये असंवेदनसील जवाब कई तरह के सवाल अपने पीछे छोड़ जाता है कि गरीबों की लाचार जिंदगी जो सड़कों पर बिखरी हुई है, उन्हें सोने से पहले ढाई बजे रात को केवल इसलिए सचेत रहना चाहिए कि किसी बॉलीवुड के खान को गरीब इंसान और कूड़े के ढेर में अंतर नजर नहीं आता है। या इन महान हस्तियों को गरीबो की जिंदगी सच में कूड़े का ढेर लगने लगी है। जिसे साफ करने का जिम्मा मुन्सिपैलिटी ने खास कर खान परिवार को सौपा हुआ है। ऐसा ही एक वाकया 2002 में भी  हुआ था जब बड़े खान की गाड़ी ने फुटपाथ पर सो रहे चार इंसानों को कुचल डाला था। जिसमें एक व्यक्ति की जान भी चली गई थी। जिसे अदालत ने काफी संगीन मानते हुए 1500
रुपये का जुर्माना भी तय किया था। जो काफी हास्यासपद है। फिर केस चला और केस खत्म भी हो गया किसी को पता भी नहीं चला। लेकिन जिस घर का चिराग इस हादसे में बुझा वो फिर कभी दुबारा नहीं जला। हमारा कानून शायद ऐसे आपराध को अपराध ही नहीं मानता इसलिए ये इरादतन और गैर ईरादतन हत्याओं के मामले बढ़ते जा रहे हैं किसी के जान का हर्जाना मात्र 1500 रुपये वो भी उस स्टार के लिए जो एक फिल्म बनाने के 15 करोड़ लेता हो। इससे हमें हमारे कानून के गंभीरता का अंदाज लग सकता है। फिलहाल इस केस में भी  जिसमे एक बुजुर्ग महिला की मौत हुई है उस गाड़ी के चालक पर 304 और 279 जैसी छोटी धाराएं लगाई हैं जिसमें शायद कुछ ही दिनों में चालक को जमानत मिल जाएगी।
लेकिन यहां सवाल ये उठता हैकि आखिर कब तक ऐसी मौते होती रहेंगी। जो आए दिन तेजी से बढ़ती ही जा रही हैं और सड़क हादसों में मौतों का आकड़ा साल दर साल बढ़ता ही जा रहा है।
इस घटना के बाद एक बड़ा सवाल यह उठता है कि क्या ऐसी घटनाओं में इंसान की जिंदगी का कोई मूल्य नही है? या ऐसे मृत्यु को स्वेच्छा मृत्यु का दर्जा प्राप्त हो गया है।
जिस देश में स्वेच्छा मृत्यु को भी अपराध की श्रेणी में रखा गया है। उसी देश में एक हाईप्रोफाइल मामले में हमारे देश की कानून व्यवस्था इतनी असंवेदनशील है। यह अपने आप में एक विडंबना है। आज के दौर में जरुरत है एक नए संशोधित कानून की जो इस हादसे को गैर इरादतन जुर्म का जामा न पहनाए। बल्कि एक सख्त कानून बनाकर लोगों की जान की हिफाजत की जा सके। ताकि अमीरों के गाड़ी के पहिए किसी गरीब की जान पर भारी ना पड़े।