Saturday, April 28, 2012

रश्मिरथी (रामधारी सिंह दिनकर)

सौभाग्य न सब दिन सोता है
देखे आगे क्या होता है
मैत्री की राह दिखाने को
सब को सुमार्ग पर लाने को
दुर्योधन को समझने को
भीषण विध्वंस बचाने को
भगवान हस्तिनापुर आए
पांडव का संदेशा लाए
दो न्याय अगर तो आधा दो
पर इसमे भी यदि बाधा हो
तो दे दो केवल पांच ग्राम
रखो अपनी धरती तमाम
हम वही खुशी से खाएँगे
परिजन पे असि ना उठाएँगे
दुर्योधन वो भी दे ना सका
आशीष समाज की से न सका
उल्टे हरी को बाँधने चला
जो था असाध्य, साधने चला
जब नाश मनुज पर छाता हे
पहले विवेक मर जाता हे
हरी ने भीषण हुंकार किया
अपना स्वरूप विस्तार किया
डगमग डगमग दिग्गज डोले
भगवान कुपित होकर बोले
जंजीर बढ़ा अब साध मुङो
हा हा दुर्योधन बाँध मुङो
यह देख गगन मुझमे लय है
यह देख पवन मुझमे लय है
मुझमे विलीन झंकार सकल
मुझमे लय है संसार सकल
अमरत्व फूलता है मुझमें
संहार झूलता है मुझमे
उदयांचल मेरे दीप्त भाल
भू-मंडल वक्ष-स्थल विशाल
भुज परिधि बाँध को घेरे हैं
मैनाक मेरु पग मेरे हैं
दिखते हैं जो ग्रह नक्षत्र निखर
सब हैं मेरे मुख के अंदर
शक हो तो दृश्य अकांड देख
मुझमे सारा ब्रrांड देख
चर-अचर जीव, जग क्षर अक्षर
नश्वर मनुष्य, सूरजति अमर
सत कोटि सूर्य, सत कोटि चंद्र
सत कोटि सरित सर सिंधु मंडर
सत कोटि ब्रrा विष्णु महेश
सत कोटि जलपटि जीष्णु धनेश
सत कोटि रुद्र, सत कोटि काल
सत कोटि दंड धर लोकपाल
जंजीर बढ़ा कर साध इन्हे
हा हा दुर्योधन बाँध इन्हे
भूतल अटल पाताल देख
गत और अनागत काल देख
यह देख जगत का आदि सृजन
यह देख महाभारत का ऋण
मृतको से पति हुई भू है
पहचान कहाँ इसमे तू है?
अंबर का कुन्तल जाल देख
पद के नीचे पाताल देख
मुट्ठी में तीनो काल देख
मेरा स्वरूप विकराल देख
जिह्वा से कढ़ती ज्वाल सघन
सांसो से पाता जन्म पवन
पड़ जाती मेरी दृष्टि जिधर
हँसने लगती है सृष्टि उधर
मैं जब मूंदता हूँ लोचन
छा जाता है चारो ओर मरन
बाँधने मुङो तू आया है
जंजीर बड़ी क्या लाया है?
यदि मुङो बाँधना चाहे मन
पहले तू बाँध अनंत गगन
सुनने को साध न सकता है
वो मुङो बाँध कब सकता है?
हित वचन नही तूने माना
मैत्री का मूल्य न पहचाना
तो ले अब मैं भी जाता हूं
अंतिम संकल्प सुनाता हूं
याचना नही अब रण होगा
जीवन जय या की मरण होगा
टकराएँगे नक्षत्र निखर
बरसेगी भू पर वाहनी प्रखर
फन शेषनाग का डोलेगा
विकराल काल मुँह खोलेगा
दुर्योधन रण ऐसा होगा
फिर कभी नही जैसा होगा
भाई पर भाई टूटेंगे
विष-बाण बूँद-से छूटेंगे
सौभाग्य मनुज के फूटेंगे
वायस श्रंगाल सुख लूटेंगे
आखिर तू भूसायी होगा
हिंसा का पर्यायी होगा
थी सभा सन्न, सब लोग डरे
चुप थे या थे बेहोश पड़े
केवल दो नर न आघाते थे
धृतराष्ट्र-विदुर सुख पाते थे
कर जोड़ खड़े प्रमुदित निर्भय
दोनो पुकारते थे जय-जय।