Tuesday, April 26, 2011

चौदहवीं के चांद से मुन्नी हुई बदनाम.....


बदलते दौर के साथ-साथ आज समाज में हर चीज़ नए रंग और नए तेवर में देखने को मिल रही है। समाज का आइना बनने की कोशिश करने वाला बॉलीवुड तो अपनी सारी हदों को तोड़कर बड़ी तेज़ी से प्रगति करता हुआ समय से भी सैकड़ों मील दूर निकल गया है। चाहे बॉलीवुड की फिल्मों की बात हो या उनके गानों की, अब तो ऐसा लग रहा है कि ये गाने हैं या फिर लोगों को उन्मत करने वाली भांग।
बात ऐसी नहीं है कि जब फिल्मों के गानों में लाइन होती थी “चौहदवीं का चांद हो…” तब फिल्में नहीं चलती थीं। फिल्में बखूबी चलती थी और सुपरहिट भी होती थीं। आज कल तो फिल्में फ्लॉप भी हो जाएं पर शीला अगर जवान हो जाए तो फिल्म पर खर्च हुआ आधा पैसा तो निकल ही आता है। 1968 में बनी फिल्म शिकार में हिरोइन गुरूदत्त से कहती है कि, “परदे में रहने दो परदा न उठाओ..” और आज के जमाने में तो मुन्नी मैडम अपने आप को ही पेश करते हुए नज़र आ रही रही हैं कि “मुन्नी बदनाम हुई डार्लिंग तेरे लिए..”। बेशर्मी की सारी हदें तो तब टूट जाती हैं जब मुन्नी “टकसाल” होती है। हाल में ही, आई हुई फिल्मों पर अगर गौर फरमाया जाए तो उसमें हीरोइन गाती है कि “अल्लाह बचाए मेरी जान कि रजिया गुंडों में फंस गई...” अब सोचने वाली बात है कि इतने कम कपड़ों में कोई भी बाहर घूमेगा या नाचेगा तो जाहिर सी बात है कि गुंडों में फंस जाएगी। इसमें नया क्या है भला? आजकल कुछ भी बोल दो और वो गाना हो जाता है। फिर संगीत का घालमेल कुछ इस तरह से किया जाता है कि वो तुरंत ही लोगों की जुबान पर चढ़ जाता है और वो भी बिना उसका अर्थ जाने उसे गाने लगते हैं। ऐसे गाने खुलेआम सुनने को मिल रहे हैं, जिसके वजह से समाज में तमाम तरह के नौतिक पतन देखने को मिल रहे है।
इसके अलावा एक और बात समझ से परे है कि सेंसर बोर्ड को क्या हो गया है और सेंसर बोर्ड इन चीज़ों को क्यों नज़रअंदाज़ कर रहा है। फिल्मों में इस्तेमाल होने वाली भाषा भी आज के समय में कितनी अभद्र और अशिष्ट हो चुकी है। फिल्में तो पहले भी बनती थी पर हीरों या विलेन कुत्ते कमीने तक ही थे पर अब तो ये स्क्रिप्ट राइटर शायद इतने आज़ाद हो गए हैं कि उन्हें लगने लगा है कि फिल्म में जब तक दो चार बीप वाले शब्द न हों, जब तक मां...बहन...की न कहें तो कुछ किया ही नहीं। नए और पुराने गानों के बीच अगर कोई सर्वेक्षण कराया जाए तो होंठ रसीले, मुन्नी हो या शीला, दिल ठरकी हो जाए की बजाए मुहम्मद रफी साहब का बहुचर्चित गाना “बहारों फूल बरसाओ” ही सर्वश्रेष्ठ रहेगा।
नैतिकता बचाने के लिए सैंसर बोर्ड अगर अब नहीं चेतेगा तो शायद आने वाले दिनों में पांच से दस साल के बच्चे भी चेयर के बजाए स्कर्ट ही खींचने लगें तो कोई आश्चर्य की बात नहीं होगी...
आशीष शुक्ला

Monday, April 4, 2011

पहचान


मैं और तुम रोज़ नहीं मिलते

पर कुछ समय के लिए

जब भी हम मिलते हैं

तो ऐसा लगता है कि

हम कभी अलग ही नहीं हुए

शायद यही पहचान है

हमारे रिश्ते की....

- आशीष शुक्ला